Sunday, December 14, 2008

गीत


क्यों खिसक रही , पैरों के तले की ज़मीं
क्यों गुदगुदी करने लगी है ज़िन्दगी

मन हो रहा है क्यों चंचल
बरसों लगे है क्यों पल -पल
क्यों गुनगुनी , लगने लगी है चाँदनी


क्यों खिसक रही , पैरों के तले की ज़मीं
क्यों गुदगुदी करने लगी है ज़िन्दगी


साँसे हुई हैं क्यों आवारा
दिल हो गया है क्यों बेचारा
क्यों चाशनी लगने लगी है तेरी हँसी

क्यों खिसक रही , पैरों के तले की ज़मीं
क्यों गुदगुदी करने लगी है ज़िन्दगी

Sunday, November 9, 2008


पागल वक्त का झोंका आया
बिखर गए यादों के दाने
राख-राख सब हुए जलावन
फूंक दिए सब नए -पुराने
इश्क की हंडिया फ़ुट गई है...

उम्मीदें भी भूखी सोई
दिल के गले लिपट के रोई
चीख - चीख के उसे पुकारा
पर न आया आँख से कोई
नैन से बारिश रूठ गई है ...

सुस्त हुए आहों के झटके
ख्वाब कही जंगल में अटके
बेचारी हो गई ज़िन्दगी
आस - साँस को दर-दर भटके
साँस की माला टूट गई है...

Sunday, September 7, 2008

दर्द की खेती


दर्द की खेती आओ करले हम दोनों
नैनो में बारिश को भर ले हम दोनों

यादों के पौधों को काटें
अपने -अपने हिस्से बाटें
हरी शाख , सिरहाने रखकर
वक्त को कोसे, नींद को डाटें
फूँक मार के चाँद बुझा दे हम दोनों
दर्द की खेती आओ करले हम दोनों

आंसू से सपनो को सींचे
गरम साँस से फसल पकाएं
जिस्म का चूल्हा , दिल की लकड़ी
ताज़ा सा कोई घाव बनायें
नए -पुराने ज़ख्म सिला ले हम दोनों
दर्द की खेती आओ करले हम दोनों

Monday, September 1, 2008

कोसी का महाप्रलय


बाछों का खिलना शायद 10 फुट गहरे पानी में नाव का दिखना
बाछों का खिलना शायद राहत सामग्री गिराते हेलीकॉप्टर की आवाज़
बाछों का खिलना शायद पुनर्वास की मोटी रकम की घोषणा
बाछों का खिलना शायद 2 मीटर बरसाती 1 लीटर मिटटी का तेल
बाछों का खिलना शायद राहत शिविर में जिंदा बच्चे का पैदा होना
बाछों का खिलना शायद अपनी बकरी छोड़ ख़ुद पेड़ पर चढ़ जाना
बाछों का खिलना शायद एक पैकेट चिवडा और गुड या दोने में खिचडी
बाछों का खिलना शायद महाप्रलय में दूर से दिखती मद्धम रौशनी
समझ नही पाया अब तक मैं बाछों का खिलना
शायद कई बार मेरी बांछे खिली भी हो, पर दिखी नही आज तक
शायद तब जब तुमने आसुओं में अकेला छोड़ दिया था मुझे
एक मुआवजे के इंतज़ार में

Sunday, April 20, 2008

ताप

उन पत्तों से पूछो जो आधी रात को भी ना संभाल सके मेरे दर्द को और , आ गिरे ज़मीन पर एक हलकी सी सरसराहट के साथ .उस कोयल से पूछो जिसने सवेरा होने से पहले ही मेरी आहों को अपनी सुरीली आवाज़ मैं डुबो दिया .वो झींगुर जिसने मेरी बेतरतीब धडकनों को अपने साज में घोल दिया.वो आसमाँ जो टपकते आँसुवो को ओस से ढकने की कोशिश में लगा था .ज़ख्मो की हालत उन चीटियों से पूछ लिया होता जिन्होंने ढलती रात को इस जिस्म से भूख मिटने की कोशिश की थी.भला हो उस चाँद का जिससे ये सब कुछ देखा नही गया और रात बीतते-बीतते थोडी देर के लिए वो उजाला कर गया. चाँद की आखिरी और सूरज की पहली किरण के बीच न रात ने सोने दिया न दिन ने जगने दिया.तब तक रतजगा अपना असर दिखा चुका था. सूरज निकलने से पहले ही बदन जेठ से से भी ज़्यादा गर्म हो चुका था . पर ये गर्माहट उस गर्मजोशी की सजा थी जो तुमने दिखाई थी.तुम्हारे जिस्म पर दौड़ते हाथों में बिजली सी तेजी तुम्हे ही महसूस हुई थी, लेकिन छुअन के हर एहसास से मैं ख़ुद झुलस रहा था .मेरे माथे से टपकने वाली बूंदों की वजह बाहरी नही थी . हाथों की हर थाप के साथ कुछ बदन में इकठ्ठा होता रहा बाहर आने के लिए . लेकिन तुम्हारे इनकार ने उस आग को भीतर ही रोक दिया लिहाज़ा वो उबल पड़ी एक लावे की शक्ल में जो अब भी दहक रहा है.

Thursday, January 31, 2008

कामयाबी


आगे बढ़ने की होड़ ने पीछे लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे. ऊँचा चढ़ने की कवायद में हर सीढ़ी गिरा दी गई थी . हर कदम के साथ पीछे की दुनिया दूर और आगे की दुनिया करीब आती गई . फ़िर एक दिन मंजिल पैरो तले छटपटा रही थी और कदम सबसे ऊँचे पायदान पर . मुड़कर देखा तो बाकि लोग काफी धुंधले नज़र आ रहे थे. इन धुंधली तस्वीरों में गैरों के अलावा अपने भी थे .
वो उंगलिया जिन्होंने चलना सिखाया, वो भी थी .
वो हथेलिया जो हर थपकी के साथ ,
परियों के देश में ले जाती वो भी थी .
वो आँचल जो थपेडों से बचाता था वो भी था.
वो गलियां जहाँ बरसात का पानी ,
तलवों की छाप में ठहरता था वो भी थी.
लेकिन खता किसकी थी ?
कुसूरवार कौन था ?
कामयाबी कीमत नही मांगती ?
चलना सिखाने वाली इन्ही उंगलियों ने एक दिन ,
घर से बाहर जाने का रास्ता दिखाया था .
थपकियाँ देने वाली हथेलियों ने एक दिन ,
पीठ पर धौल जमाई थी .
इसी आँचल ने कामयाबी की दुवायें भी मांगी थी .
तब निकलते वक्त इन्ही गलियों ने ,
धूल उड़ाया था सहमे चेहरे पर .
शायद ये वही धूल है ,
जिसकी चादर आंखों को धुंधला कर गई है .

Tuesday, January 15, 2008

दौर- "स्ट्रगल "


अपने मुम्बई के पड़ाव में हमने भी कुछ ख़ाक छानी थी. हर चेहरे की तरफ़ मदद के लिए आँख उठाई थी
मगर हर मददगार चेहरा अनजाना बन गया .
नौकरी की तलाश में दिन बिना सर्दियों के छोटे होने लगे थे. खैर कोशिश जारी थी और कोशिश में इमानदारी थी . फ़िर एक दिन अल्लाह भी मिन्नतों से तंग आ गया और दे दी मनचाही मुराद इस नामुराद को . ये चाँद लाईने उसी दौर की तस्वीर बयां करती है,जिसे "मुम्बईया" बोली में "स्ट्रगल " कहते हैं .

एक दौर था जो गुजर गया
ताउम्र असर कर गया

सूरज जब खिड़की से झांके
सड़के - नाके
दिनों के फांके
धूल से था मेरा दामन भर गया
एक दौर था जो गुजर गया

नयन-नयन से थे कतराते
रिश्ते - नाते
सब भरमाते
वक्त भी लगता था चोटी पर ठहर गया
एक दौर था जो गुजर गया

दौर में था बस दरिया साथी
कहीं पे हाँ थी
कहीं पे ना थी
झोंका एक हवा का घाव था कर गया
एक दौर था जो गुज़र गया

उम्मीदों का दामन थामे
दौड़ती सुबहें
भागती शामें
कारसाज फ़िर एक करिश्मा कर गया
एक दौर था जो गुजर गया

एक दौर था जो गुजर गया
ताउम्र असर कर गया

Wednesday, January 2, 2008

रिश्ता-(बेटे का बाप से )

जब से होश संभाला इस रिश्ते को देखता चला आ रहा हूँ, कब इसकी नींव पड़ी कुछ पता ही ना चला .एक अजीब सी सर्दी जमी रहती है हम दोनों के रिश्तों में .बचपन से लेकर आज तक धीरे-धीरे जमता हुआ रिश्ता कब ग्लेशियर में तब्दील हो गया भनक तक नही लगी. होली की गर्माहट या दीवाली की रौशनी से पिघलकर इस रिश्ते से दो -चार बूंदें कभी -कभार छलक आती हैं, वरना पूरे साल इस बर्फ के पहाड़ को चुपचाप देखना पड़ता है .
बर्फ के इस पहाड़ को चुपचाप देखते रहने की दोनों की अपनी वजहें है.
एक शायद इस बात से डर जाता है की जमी बर्फ के पिघलने से कहीं रिश्तों का जलजला न आ जाए तो दूसरा इस बात से की कहीं ये रिश्ते पिघलकर एकबार में ही बह ना जाए. " हमने कभी एक दूसरे की छुवन नही महसूस की है, ना कभी मेरी उंगलियों ने उनके पैरों को छुवा, न कभी उनकी उंगलियों ने मेरे माथे को और एक दूसरे की जकडन तो हमने ख्वाब में भी नही महसूस की है. बावजूद इसके हमारा रिश्ता उतना ही पाक है जितना की रमजान." शुक्र है ऊपरवाले का, दोनों के बीच में कुछ तो है, बर्फ ही सही .