Thursday, January 31, 2008

कामयाबी


आगे बढ़ने की होड़ ने पीछे लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे. ऊँचा चढ़ने की कवायद में हर सीढ़ी गिरा दी गई थी . हर कदम के साथ पीछे की दुनिया दूर और आगे की दुनिया करीब आती गई . फ़िर एक दिन मंजिल पैरो तले छटपटा रही थी और कदम सबसे ऊँचे पायदान पर . मुड़कर देखा तो बाकि लोग काफी धुंधले नज़र आ रहे थे. इन धुंधली तस्वीरों में गैरों के अलावा अपने भी थे .
वो उंगलिया जिन्होंने चलना सिखाया, वो भी थी .
वो हथेलिया जो हर थपकी के साथ ,
परियों के देश में ले जाती वो भी थी .
वो आँचल जो थपेडों से बचाता था वो भी था.
वो गलियां जहाँ बरसात का पानी ,
तलवों की छाप में ठहरता था वो भी थी.
लेकिन खता किसकी थी ?
कुसूरवार कौन था ?
कामयाबी कीमत नही मांगती ?
चलना सिखाने वाली इन्ही उंगलियों ने एक दिन ,
घर से बाहर जाने का रास्ता दिखाया था .
थपकियाँ देने वाली हथेलियों ने एक दिन ,
पीठ पर धौल जमाई थी .
इसी आँचल ने कामयाबी की दुवायें भी मांगी थी .
तब निकलते वक्त इन्ही गलियों ने ,
धूल उड़ाया था सहमे चेहरे पर .
शायद ये वही धूल है ,
जिसकी चादर आंखों को धुंधला कर गई है .

Tuesday, January 15, 2008

दौर- "स्ट्रगल "


अपने मुम्बई के पड़ाव में हमने भी कुछ ख़ाक छानी थी. हर चेहरे की तरफ़ मदद के लिए आँख उठाई थी
मगर हर मददगार चेहरा अनजाना बन गया .
नौकरी की तलाश में दिन बिना सर्दियों के छोटे होने लगे थे. खैर कोशिश जारी थी और कोशिश में इमानदारी थी . फ़िर एक दिन अल्लाह भी मिन्नतों से तंग आ गया और दे दी मनचाही मुराद इस नामुराद को . ये चाँद लाईने उसी दौर की तस्वीर बयां करती है,जिसे "मुम्बईया" बोली में "स्ट्रगल " कहते हैं .

एक दौर था जो गुजर गया
ताउम्र असर कर गया

सूरज जब खिड़की से झांके
सड़के - नाके
दिनों के फांके
धूल से था मेरा दामन भर गया
एक दौर था जो गुजर गया

नयन-नयन से थे कतराते
रिश्ते - नाते
सब भरमाते
वक्त भी लगता था चोटी पर ठहर गया
एक दौर था जो गुजर गया

दौर में था बस दरिया साथी
कहीं पे हाँ थी
कहीं पे ना थी
झोंका एक हवा का घाव था कर गया
एक दौर था जो गुज़र गया

उम्मीदों का दामन थामे
दौड़ती सुबहें
भागती शामें
कारसाज फ़िर एक करिश्मा कर गया
एक दौर था जो गुजर गया

एक दौर था जो गुजर गया
ताउम्र असर कर गया

Wednesday, January 2, 2008

रिश्ता-(बेटे का बाप से )

जब से होश संभाला इस रिश्ते को देखता चला आ रहा हूँ, कब इसकी नींव पड़ी कुछ पता ही ना चला .एक अजीब सी सर्दी जमी रहती है हम दोनों के रिश्तों में .बचपन से लेकर आज तक धीरे-धीरे जमता हुआ रिश्ता कब ग्लेशियर में तब्दील हो गया भनक तक नही लगी. होली की गर्माहट या दीवाली की रौशनी से पिघलकर इस रिश्ते से दो -चार बूंदें कभी -कभार छलक आती हैं, वरना पूरे साल इस बर्फ के पहाड़ को चुपचाप देखना पड़ता है .
बर्फ के इस पहाड़ को चुपचाप देखते रहने की दोनों की अपनी वजहें है.
एक शायद इस बात से डर जाता है की जमी बर्फ के पिघलने से कहीं रिश्तों का जलजला न आ जाए तो दूसरा इस बात से की कहीं ये रिश्ते पिघलकर एकबार में ही बह ना जाए. " हमने कभी एक दूसरे की छुवन नही महसूस की है, ना कभी मेरी उंगलियों ने उनके पैरों को छुवा, न कभी उनकी उंगलियों ने मेरे माथे को और एक दूसरे की जकडन तो हमने ख्वाब में भी नही महसूस की है. बावजूद इसके हमारा रिश्ता उतना ही पाक है जितना की रमजान." शुक्र है ऊपरवाले का, दोनों के बीच में कुछ तो है, बर्फ ही सही .