Thursday, January 31, 2008

कामयाबी


आगे बढ़ने की होड़ ने पीछे लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए थे. ऊँचा चढ़ने की कवायद में हर सीढ़ी गिरा दी गई थी . हर कदम के साथ पीछे की दुनिया दूर और आगे की दुनिया करीब आती गई . फ़िर एक दिन मंजिल पैरो तले छटपटा रही थी और कदम सबसे ऊँचे पायदान पर . मुड़कर देखा तो बाकि लोग काफी धुंधले नज़र आ रहे थे. इन धुंधली तस्वीरों में गैरों के अलावा अपने भी थे .
वो उंगलिया जिन्होंने चलना सिखाया, वो भी थी .
वो हथेलिया जो हर थपकी के साथ ,
परियों के देश में ले जाती वो भी थी .
वो आँचल जो थपेडों से बचाता था वो भी था.
वो गलियां जहाँ बरसात का पानी ,
तलवों की छाप में ठहरता था वो भी थी.
लेकिन खता किसकी थी ?
कुसूरवार कौन था ?
कामयाबी कीमत नही मांगती ?
चलना सिखाने वाली इन्ही उंगलियों ने एक दिन ,
घर से बाहर जाने का रास्ता दिखाया था .
थपकियाँ देने वाली हथेलियों ने एक दिन ,
पीठ पर धौल जमाई थी .
इसी आँचल ने कामयाबी की दुवायें भी मांगी थी .
तब निकलते वक्त इन्ही गलियों ने ,
धूल उड़ाया था सहमे चेहरे पर .
शायद ये वही धूल है ,
जिसकी चादर आंखों को धुंधला कर गई है .

3 comments:

लोकेन्द्र बनकोटी said...

"Nostalgia" ka peecha karna toh har samvedansheel vyakti ka dharm hai. Magar tumne kaafi samtal kar diya hai smritiyo ki oobad khaabad dhara ko...


Badiya hai.

sandeep gaur said...

वक़्त का हर लम्हा तुममे जिंदा है.
हर अहसास जिंदा है.
हर आह जिंदा है,
जो जिया वो इंकलाब जिंदा है,
और जो पढा वो कलाम भी,
तुम जिंदा हो
कई लोगों से kahin ज्यादा.

umesh chaturvedi said...

badhia hai. kaam jaari rakhe.