Thursday, December 27, 2007

गाँव का बचपन


आज जब पूरी दुनिया ब्लोग्स की गंगा मैं हाथ धोने पर आमादा है तो हम तो ठहरे ही गंगा किनारे वाले.जहाँ रगों में गंगा मैया बहती है, तो लीजिये हम भी कूद पड़ते हैं लेके गंगा मैया का नाम.


आज में आपको बचपन में लिए चलता हूँ उस बचपन में जिसे आज की हाय-बाय वाली पीढ़ी ने शायद ही कभी जिया हो , बिना होर्लिक्स और बोर्न्वीता का बचपन , बिना प्ले स्टेशन का बचपन, बिना पिज्जा का बचपन . लेकिन अगर आपने मेरा बचपन जिया है तो कृपया बताइयेगा ज़रूर .



"लाख धींगा -मुश्ती के बावजूद माँ के सख्त हाथ आंखों में साबुन मल ही देते थे .ना नहाने की जिद सर्दियों की दुपहरी में गाल पर सूरज उगा देती थी , और तब सचमुच रोने - धोने वाला मुहावरा अपनी शक्ल अख्तियार कर लेता था . दिन मटर की फलियों में टूटता और गन्ने के रसों में डूबता ,रात अलाव से गर्म होकर पुवाल में छुप जाती . बड़ा ही गुनगुना मौसम होता था उन् दिनों . बस्तों में बेर पहले किताबे बाद में रखी जाती थी . लेकिन स्वेटर पर चिपके सरसों के फूल मास्टर जी की छड़ी को अनजाने ही दावत दे देते .और फ़िर नन्ही हथेलिया मिटटी में लिपटी जामुन की तरह नज़र आने लगती .स्कूल की घंटी बजी नही की सिपाही अपने-अपने कंचो से लैस होकर डट जाते थे मैदानों में . टनाक–छनाक के साथ निशाने पर लगते भागते कंचे , तब तिजोरी की शान हुआ करते थे . सभी घरों में माचिस पर कड़ा पहरा रहता था क्योंकि माचिस के डिब्बे अचानक टेलीफोन में बदल जाया करते थे . कुछ ही मिनटों में ने चप्पल से पहिये का आविष्कार हो जाता था .शहादत से बचने के लिए चुम्बक वाला रेडियो बक्से में से टुकुर –टुकुर झांकता रहता था .इतवार का दिन और न्य्ग्रा फाल टूबेवेल में समां जाता था . मोटी धार से हिलता बदन गुदगुदी से भर जाता . और फ़िर शुरू हो जाता छींकों का दौर , जिसको घी में पिघला हुआ गुड और अदरक ही ख़त्म कर पाते थे . ये वाक्यात ही गावों में बचपन कहे जाते थे ."