Sunday, April 20, 2008

ताप

उन पत्तों से पूछो जो आधी रात को भी ना संभाल सके मेरे दर्द को और , आ गिरे ज़मीन पर एक हलकी सी सरसराहट के साथ .उस कोयल से पूछो जिसने सवेरा होने से पहले ही मेरी आहों को अपनी सुरीली आवाज़ मैं डुबो दिया .वो झींगुर जिसने मेरी बेतरतीब धडकनों को अपने साज में घोल दिया.वो आसमाँ जो टपकते आँसुवो को ओस से ढकने की कोशिश में लगा था .ज़ख्मो की हालत उन चीटियों से पूछ लिया होता जिन्होंने ढलती रात को इस जिस्म से भूख मिटने की कोशिश की थी.भला हो उस चाँद का जिससे ये सब कुछ देखा नही गया और रात बीतते-बीतते थोडी देर के लिए वो उजाला कर गया. चाँद की आखिरी और सूरज की पहली किरण के बीच न रात ने सोने दिया न दिन ने जगने दिया.तब तक रतजगा अपना असर दिखा चुका था. सूरज निकलने से पहले ही बदन जेठ से से भी ज़्यादा गर्म हो चुका था . पर ये गर्माहट उस गर्मजोशी की सजा थी जो तुमने दिखाई थी.तुम्हारे जिस्म पर दौड़ते हाथों में बिजली सी तेजी तुम्हे ही महसूस हुई थी, लेकिन छुअन के हर एहसास से मैं ख़ुद झुलस रहा था .मेरे माथे से टपकने वाली बूंदों की वजह बाहरी नही थी . हाथों की हर थाप के साथ कुछ बदन में इकठ्ठा होता रहा बाहर आने के लिए . लेकिन तुम्हारे इनकार ने उस आग को भीतर ही रोक दिया लिहाज़ा वो उबल पड़ी एक लावे की शक्ल में जो अब भी दहक रहा है.