आज जब पूरी दुनिया ब्लोग्स की गंगा मैं हाथ धोने पर आमादा है तो हम तो ठहरे ही गंगा किनारे वाले.जहाँ रगों में गंगा मैया बहती है, तो लीजिये हम भी कूद पड़ते हैं लेके गंगा मैया का नाम.
आज में आपको बचपन में लिए चलता हूँ उस बचपन में जिसे आज की हाय-बाय वाली पीढ़ी ने शायद ही कभी जिया हो , बिना होर्लिक्स और बोर्न्वीता का बचपन , बिना प्ले स्टेशन का बचपन, बिना पिज्जा का बचपन . लेकिन अगर आपने मेरा बचपन जिया है तो कृपया बताइयेगा ज़रूर .
"लाख धींगा -मुश्ती के बावजूद माँ के सख्त हाथ आंखों में साबुन मल ही देते थे .ना नहाने की जिद सर्दियों की दुपहरी में गाल पर सूरज उगा देती थी , और तब सचमुच रोने - धोने वाला मुहावरा अपनी शक्ल अख्तियार कर लेता था . दिन मटर की फलियों में टूटता और गन्ने के रसों में डूबता ,रात अलाव से गर्म होकर पुवाल में छुप जाती . बड़ा ही गुनगुना मौसम होता था उन् दिनों . बस्तों में बेर पहले किताबे बाद में रखी जाती थी . लेकिन स्वेटर पर चिपके सरसों के फूल मास्टर जी की छड़ी को अनजाने ही दावत दे देते .और फ़िर नन्ही हथेलिया मिटटी में लिपटी जामुन की तरह नज़र आने लगती .स्कूल की घंटी बजी नही की सिपाही अपने-अपने कंचो से लैस होकर डट जाते थे मैदानों में . टनाक–छनाक के साथ निशाने पर लगते भागते कंचे , तब तिजोरी की शान हुआ करते थे . सभी घरों में माचिस पर कड़ा पहरा रहता था क्योंकि माचिस के डिब्बे अचानक टेलीफोन में बदल जाया करते थे . कुछ ही मिनटों में ने चप्पल से पहिये का आविष्कार हो जाता था .शहादत से बचने के लिए चुम्बक वाला रेडियो बक्से में से टुकुर –टुकुर झांकता रहता था .इतवार का दिन और न्य्ग्रा फाल टूबेवेल में समां जाता था . मोटी धार से हिलता बदन गुदगुदी से भर जाता . और फ़िर शुरू हो जाता छींकों का दौर , जिसको घी में पिघला हुआ गुड और अदरक ही ख़त्म कर पाते थे . ये वाक्यात ही गावों में बचपन कहे जाते थे ."
6 comments:
Bhaiyaa, humne ganga maiyya waala toh nahi magar angethi ke kinare mungphali ki kahaniyo ke saath bachpan zaroor jiya hai. Baharhaal, blogging mein shridaya swagat hai... Sundar abhivyakti mein nostalgia ka maaledaar tadka kaafi dino baad khaane ko mila...
ise padkar merigawoo jane ki itcha ho rahi hai
Very nice article Boss..
Keep it up!!
:-)
Ajeet...yaar bachpan ki yaadein hi kuchch aisi hoti hai..sirhan si uth jaati hai, wo gali koonche, wo nange pair ghar se bhaag jana, panji dassi ki goli, kapde ki gend...aur na jaane kya kya....yaar ganga ka kinara to nahin mila par bachpan abhi bhi jine ki iksha hoti hai..
अजीत,
तुम्हार ब्लॉग पड़कर बहुत अच्छा लगा, तुमने तो मुझको बचपन की याद दिला दी, अभी मुझको ऐसा लग रहा है कि मैं स्पेन से इंडिया वापस आकर तुरंत अपने घर जाऊँ और फिर बचपन मे कि हुई शरारते फिर से दोहरा दूँ पर इस वक्त ऐसा मुमकिन नही है कियोंकी, "गया वक्त वापस नही आता" और जिन्दिगी यह दोहराने की मोहलत नही देरही है
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी
मुहल्ले की सबसे निशानी पुरानी
वो बुधिया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों में परियों का डेरा
वो चहरे की झुरिर्यों में सदियों का फेरा
भुलाए नहीं भूल सकता है कोई
वो छोटी सी रातें वो लम्बी कहानी
कडी धूप में अपने घर से निकालना
वो चिडिया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुडिया की शादी में लड़ना झगड़ना
वो झूलों से गिरना वो गिर के संभालना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफे
वो टूटी हुई चूडियों की निशानी
कभी रेत के ऊँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना बनाके मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो क्वाबों खिलौनों की जागीर अपनी
न दुनिया का गम था न रिश्तों के बन्धन
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी
chha gaye bhai.., chha gaye...!
gaon ki galeeyon, bagon, khet-khilihano ki yaad ek bar phir se taza ho gayee. jindagee ki bhag-daudn me gaon ki sair karane ke liye dil ki gahrayeeyon se dil ke meet ko ek nahi, kai gahare payar bahre chumman.....!
kavi,Goarakhpur
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