Tuesday, January 15, 2008

दौर- "स्ट्रगल "


अपने मुम्बई के पड़ाव में हमने भी कुछ ख़ाक छानी थी. हर चेहरे की तरफ़ मदद के लिए आँख उठाई थी
मगर हर मददगार चेहरा अनजाना बन गया .
नौकरी की तलाश में दिन बिना सर्दियों के छोटे होने लगे थे. खैर कोशिश जारी थी और कोशिश में इमानदारी थी . फ़िर एक दिन अल्लाह भी मिन्नतों से तंग आ गया और दे दी मनचाही मुराद इस नामुराद को . ये चाँद लाईने उसी दौर की तस्वीर बयां करती है,जिसे "मुम्बईया" बोली में "स्ट्रगल " कहते हैं .

एक दौर था जो गुजर गया
ताउम्र असर कर गया

सूरज जब खिड़की से झांके
सड़के - नाके
दिनों के फांके
धूल से था मेरा दामन भर गया
एक दौर था जो गुजर गया

नयन-नयन से थे कतराते
रिश्ते - नाते
सब भरमाते
वक्त भी लगता था चोटी पर ठहर गया
एक दौर था जो गुजर गया

दौर में था बस दरिया साथी
कहीं पे हाँ थी
कहीं पे ना थी
झोंका एक हवा का घाव था कर गया
एक दौर था जो गुज़र गया

उम्मीदों का दामन थामे
दौड़ती सुबहें
भागती शामें
कारसाज फ़िर एक करिश्मा कर गया
एक दौर था जो गुजर गया

एक दौर था जो गुजर गया
ताउम्र असर कर गया

1 comment:

लोकेन्द्र बनकोटी said...

Saral hai, par pehle waali blog prastutiyo ki jaisa 'fresh' nahi hai. baharhaal, achcha praytan hai. Bura na manana